अयोध्या वापस आने पर मां कौशल्या ने श्रीराम से पूछा... "रावण" को मार दिया.....?
भगवान श्रीराम ने सुन्दर जवाब दिया
महाज्ञानी,महाप्रतापी,महाबलशाली,प्रकांड-पंडित, महाशिवभक्त, चारो
अयोध्या वापस आने पर मां कौशल्या ने श्रीराम से पूछा... "रावण" को मार दिया.....?
भगवान श्रीराम ने सुन्दर जवाब दिया
महाज्ञानी,महाप्रतापी,महाबलशाली,प्रकांड-पंडित, महाशिवभक्त, चारो वेदो के ज्ञाता, शिव ताण्डवस्त्रोत के रचयिता
"लंकेश" को मैंने नहीं मारा,
उसे "मैं" ने मारा है।
आओ हम सब अहंकार छोड़ दे
बुराई पर अच्छाई एवं असत्य पर सत्य की जीत के पर्व 🏹 "विजयदशमी" 🏹की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
विदाई
करुणा हृदय की करुणा है
करुणा नयन में छलक रही,
मात हृदय की ममता है
बूँदें मोती-सी टपक रही।
निरख रही हूँ आज तुम्
विदाई
करुणा हृदय की करुणा है
करुणा नयन में छलक रही,
मात हृदय की ममता है
बूँदें मोती-सी टपक रही।
निरख रही हूँ आज तुम्हें
मन ही मन में पिघल रही,
नुतन घर में जाओ बेटी
क्यों तू इतनी विकल रही।
बचपन में तू चंचल थी
चाँद निरख मन ललचाया,
चमक रही है चाँदनी
उजियारा आँगन आया।
वर - वधू मंडप में बैठे
चाचा - ताऊ के मन भाया,
भाव विहृल हुए बापू का
मोद भरा मन भर आया।
कोमल कर में कोमलता
कोमल पुष्प हार लो,
शोभा हमारे आँगन की
श्रृगांर में सँवार लो।
सरस सुधा सम सरलता
स्नेह को सम्भाल लो,
सौंपती हूँ आज कँवर
कोमल कर को थाम लो।
दुलार किया दुलारी का
ताई का दुलार लो,
भाई की है लाड़ली
भावज का उपहार लो।
मातृप्रेम में रमी हुई
चाची का मन मान लो,
आज विदाई हो रही
नीर नयन का थाम लो।
बच्ची थी तू गोद में आई
ममता का मनुहार लिये,
उमंग - उमंग में तरुण भाई
आँगन में अनुसार लिये।
आज बिदाई करती बेटी
करुणा हृदय में प्यार लिये,
उमड़ रही है हृदय - गंग में
नीर नयन जल धार लिये।
बेटी तू है कुल की लाली
ससुराल की लाली रखना,
मधुर - मधुर इस जीवन में
मन की रखवाली करना।
भूल न जाना ममता मेरी
बेटी ममता तड़पावेगी
सास - ससुर की सेवा करना
तू मेरी ममता पावेगी।
प्रेम
प्रेम करुँ मैं किससे जग में,
प्रभुजी समझ नहीं मन पायो।
छल प्रपंच में मिल गई माया,
सन्तोष नहीं मन आयो।
स्वार्थ में कपटी मन
प्रेम
प्रेम करुँ मैं किससे जग में,
प्रभुजी समझ नहीं मन पायो।
छल प्रपंच में मिल गई माया,
सन्तोष नहीं मन आयो।
स्वार्थ में कपटी मन मेरो,
प्रेम कियो पछतायो।
विध्न भंयकर बाधाओं ने
कठिन त्रास दिखायो
डगमगा के डोल गयो मैं
भ्रमर बीच भरमायो।
कंपित स्वर में काँप गयो मैं
अन्तर इष्ट मनायो।
व्याप गई करुणा दृष्टि में
प्रकृति प्रेम समायो।
प्रेम करुँ मैं किससे जग में,
प्रभुजी समझ नहीं मन पायो।
दीनता
दीन के भगवान अब
दीनता क्यों रो रही ?
वर्षाहीन बदली हुई
बम-वर्षा क्यों हो रही ?
मुरझा गई हरियाली अब
दीनता
दीन के भगवान अब
दीनता क्यों रो रही ?
वर्षाहीन बदली हुई
बम-वर्षा क्यों हो रही ?
मुरझा गई हरियाली अब
त्रुटि अन्न की हो रही ?
दीन के भगवान अब
दीनता क्यों रो रही ?
चीथड़े बदन पर हैं नहीं
कंपकंपी क्यों हो रही ?
सर्द ठिठुरती रात में
आग मँहगी हो रही।
दीन के भगवान अब
दीनता क्यों रो रही ?
स्वेच्छाचारी - उन्माद में
हीनता अब हो रही।
रक्त चूसती कंकाली
काँपती क्यों रो रही
दीन के भगवान अब
दीनता क्यों रो रही ?
निराश प्रेमी
विलीन हुआ क्यों पर्दे में
छिप - छिप के छिप गया
ऐ चाँद। उगने के ही पहले
क्यों अंधेरा छा गया ?
क्यों सड़ग रहके सड़ग छोड़ा
बिछुड़
निराश प्रेमी
विलीन हुआ क्यों पर्दे में
छिप - छिप के छिप गया
ऐ चाँद। उगने के ही पहले
क्यों अंधेरा छा गया ?
क्यों सड़ग रहके सड़ग छोड़ा
बिछुड़ गया, बिछुड़ा गया,
भटक रहा तेरे प्यार में
ऐ प्रेम। क्यों तरसा गया
ऐ चाँद। उगने के ही पहले
क्यों अंधेरा छा गया ?
बदन व्यापी वेदना
व्याकुल हुआ बिलखा गया,
तड़प - तड़प तड़पा गया
नयना अंधेरा छा गया।
ऐ चाँद। उगने के ही पहले
क्यों अंधेरा छा गया ?
घायल घिनौना हो गया
मैं ठोकरें ठुकरा गया,
सिसक - सिसक सिसका गया
आँसू नयन ढरका गया।
ऐ चाँद। उगने के ही पहले
क्यों अंधेरा छा गया ?
चेन नहीं, बेचैन हुआ
नींद में बहका गया,
स्वप्न में भरमा गया
सांस में सनका गया।
सौ बार तेरी याद करके
याद मैं बिसरा गया,
तरस खा, सूरत दिखा,
निराश अब तरसा गया।
ऐ चाँद। उगने के ही पहले
क्यों अंधेरा छा गया ?
हुस्न
ख्वाब में देखा उन्हें
नजर हो गई।
उलफत में गमनाक क्यों
फजर हो गई।
दीवाना बना दिलगीर का
जबर हो गई।
गमगीन हुआ गफलत में
 
हुस्न
ख्वाब में देखा उन्हें
नजर हो गई।
उलफत में गमनाक क्यों
फजर हो गई।
दीवाना बना दिलगीर का
जबर हो गई।
गमगीन हुआ गफलत में
कसर हो गई।
गबरु बना उस बस्ती में
खबर हो गई।
जिगरी मिली जब मस्ती में
सबर हो गई।
यादगारी उस हुस्न की
मगर हो गई।
रात मेरी भी आखि़र
बसर हो गई।
बाँसुरी की टेर
जमुना तट पर कृष्ण कन्हैया,
मृदुल - मृदुल वन बंसी बजाई।
टेर - टेर में राधा - राधा,
विकल हुए हैं कृष्ण कन्हाई।
सीस पे गगरी लई 
बाँसुरी की टेर
जमुना तट पर कृष्ण कन्हैया,
मृदुल - मृदुल वन बंसी बजाई।
टेर - टेर में राधा - राधा,
विकल हुए हैं कृष्ण कन्हाई।
सीस पे गगरी लई के राधा,
जमुना जल में भरी, उठाई।
कांकर मारा, तोड़ी गगरी,
बाँह पकड़ के रार मचाई।
झुझल में झुझलावे राधा,
भींज गई, नयना शर्माई।
नखराली का लख के नखरा,
पीताम्बर ने नयन चलाई।
बाला गोपी आई बन में,
निरख रही नयना ललचाई।
रास रचावे संग में रसिया,
छैल छबीली मन में मचलाई।
प्रीति - प्रीति में प्यारी राधा,
मगन भई, मन में मुस्काई।
मुग्ध भयो हैं कृष्णा कन्हैया,
कुँज - कुँज में बंसी बजाई।
जमुना तट पर कृष्ण कन्हैया,
मृदुल मृदुल बन बंसी बजाई।
सजनी की याद
जब तारे चमके रात में
नील गगन की छाँट में,
ठंढ़ी - ठंढ़ी हवा है हती,
चुपके से कानों में कहती-
तेरी याद सतावे सजनी,
सजनी की याद
जब तारे चमके रात में
नील गगन की छाँट में,
ठंढ़ी - ठंढ़ी हवा है हती,
चुपके से कानों में कहती-
तेरी याद सतावे सजनी,
ठंढ़ी रात में।
उजली - उजली उजियारी में,
ग्ली हुई अंधियारी में,
निरख रहा मैं चाँदनी,
चंद्रमुखी तू भामिनी।
तेरी याद सतावे सजनी,
ठंढ़ी रात में।
कोमलता ज्यों पुष्पों में,
तेरे गोरे - गोरे अंगों में,
चमके आभा ज्यों चाँदनी,
जैसे बदली में दामिनी।
तेरी याद सतावे सजनी
ठंढ़ी रात में।
चिकनाई ज्यों पातन में,
चिकने - चिकने गातन में,
करुणा नयन से ढलन रही,
बूंद मोती - सी टपक सजनी,
ठंढ़ी रात में।
मादकता औ मस्ती मैं,
ढूंढ रहा हूँ बस्ती में,
पुष्प कली-सी खिली रही।
क्यों तू इतनी दूर रही,
तेरी याद सतावे सजनी,
ठंढी रात में।
चंचल मन में चैन नहीं,
विकल हुआ, बेचेन नहीं,
कली - कली में कजरा - सा,
विचर रहा मैं भँवरा - सा।
तेरी याद सतावे सजनी,
ठंढी रात में।
झंडा तिरंगा
स्वाधीनता संग्राम से
शासक विदेशी रुष्ट थे
झंडा तिरंगा देख के
गेली चलाते दुष्ट थे
त्याग के बल यातना
सहते &
झंडा तिरंगा
स्वाधीनता संग्राम से
शासक विदेशी रुष्ट थे
झंडा तिरंगा देख के
गेली चलाते दुष्ट थे
त्याग के बल यातना
सहते रहे उल्लास था
विजय - कामना मस्तक में
लड़ते रहे विश्वास था
दुर्गन्ध सहते जेल में
सड़ते रहे वो धीर थे
स्वराज्य के अनुराग में
संघर्ष करते वीर थे
विजय कहानी बलिदानी की
अमर रहेगी देश में
आन न जावे तिरंगे की
लहर रहेगी देश में
शास्त्री-निधन
संधि करने था गया
अंतिम मिलाप हो गया
मित्र देश के मित्रों में
विस्मय विलाप हो गया
उदार हृदय में शास्त्री
घातक घात हो गया
पलकन में जब नींद थी
बज्र
शास्त्री-निधन
संधि करने था गया
अंतिम मिलाप हो गया
मित्र देश के मित्रों में
विस्मय विलाप हो गया
उदार हृदय में शास्त्री
घातक घात हो गया
पलकन में जब नींद थी
बज्रपात हो गया
अशान्त थी शान्ति
संधि करके सो गया।
शोक है हा शोक है
शास्त्री क्या हो गया
हिंद का वह लाल था
ताशकंद में खो गया।
वेदना है विश्व में
हिंद त्रस्त हो गया
संधि के सिद्धांत में
दृष्टान्त अस्त हो गया
अशान्त थी शान्ति
संधि करके सो गया।
कोसिगिन अयूब के कंधे
अर्थी सवार हो गया
शान्ति की खोज में
वायु सवार हो गया
पार्थिव शरीर जब
पृथ्वी पर छार हो गया
गंगा - जमुना त्रिवेणी
धारा में धार हो गया
अशान्त थी शान्ति
संधि करके सो गया।
राष्ट्र-रक्षा-कोष
हम राष्ट्र के बच्चे हैं
बचत करेंगे रोज - रोज
राष्ट्र - रक्षा - कोष को
भरते रहेंगे रोज - रोज
राष्ट्र-रक्षा-कोष
हम राष्ट्र के बच्चे हैं
बचत करेंगे रोज - रोज
राष्ट्र - रक्षा - कोष को
भरते रहेंगे रोज - रोज
बालक बनेंगे वीर हम
श्रम करेंगे रोज - रोज
पुस्तक पढ़ेंगे प्रेम से
पाठ पढ़ेंगे खोज - खोज
ध्रुव हमारा व्रत है
ज्ञानी बनेंगे सोच - सोच
बुद्धि - बल - विज्ञान में
भंडार भरेंगे रोज - रोज
सबल हिंद के वीरों का
इतिहास पढ़ेंगे खोज - खोज
उन्नत हमारा राष्ट्र हो
जय हिन्द कहेंगे रोज - रोज
रे मन बावरिया
कोमल - कोमल पुष्प कली में
खिल - खिल के मुरझावे
कीचड़ मांही गल के सौरभ
बदबू में महकावे
रे मन बावरिया,
अन्त
रे मन बावरिया
कोमल - कोमल पुष्प कली में
खिल - खिल के मुरझावे
कीचड़ मांही गल के सौरभ
बदबू में महकावे
रे मन बावरिया,
अन्त में निकट नहीं कोई आवे
सुन्दर काया लख के माया
मोहित मन भरमावे
कामुक मन की काम पिपासा
नर्क कुंड में जावे
रे मन बावरिया
अन्त में निकट नहीं कोई आवे
मूँद गई जब नींद नयन में
अद्भूत स्वप्न दिखावे
सोया विवके जाग गया
दृश्य कहाँ विलमावे
रे मन बावरिया
अन्त में निकट नहीं कोई आवे
संचित धन अरु मेरा - मेरा
संग नहीं कोई जावे
अन्त समय में जलती काया
राख पड़ी रह जावे
रे मन बावरिया
अन्त में निकट नहीं कोई आवे
भजन
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
गगन मंडल में अँधियारा है
उग जा सूरज अविनाशी
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन
भजन
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
गगन मंडल में अँधियारा है
उग जा सूरज अविनाशी
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
ज्ञान हेतु अज्ञानी भटके
ऊब गया मन अभिलाषी
अन्तरतर में हुआ अंधेरा
मन में भर गई उदासी
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
भवसागर में जल भरा
खारा पीवे ना तटवासी
अमृत - अमृत सोख लिया
कड़ुवा पीवे अविनाशी
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
गरज गरज के बदली मीठा
जल भूमि पै बरसाती
प्यास बुझे ना इस दुनिया में
तृष्णा बैरिन तरसाती
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
पित्त, वायु, कफ, काया भर गया
कंठ खांस रहा खांसी
हँसी - हँसी में व्यंग्य करना
भूल गया हँसना हाँसी
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
वृद्धापन में अन्त समय
सूझ गई यम की फाँसी
हरि भजन भजने लग गया
हर - हर शिव अविनाशी
तेरे दर्शन की प्यासी
अँखियाँ दर्शन की प्यासी
निवेदन
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
नयन हीन को सूझे नाहीं
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
प्रकाश फैला के सूर्य देवता
राह दिखाने आयो
नयन बंद में लाली झलके
रुप निखर नहीं पाय
निवेदन
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
नयन हीन को सूझे नाहीं
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
प्रकाश फैला के सूर्य देवता
राह दिखाने आयो
नयन बंद में लाली झलके
रुप निखर नहीं पायो
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
पग - पग ठोकर खाके मनवां
क्यों जग में भरमायो
टटोल-टटोल थक-थक हारया
अन्तर अंधियारो पायो।
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
विषय वासना के चक्कर में
माया जाल बिछायो
छटपट - छटपट काया करती
अन्तर द्वन्द्व मचायो
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
चंचल मन की चंचलता
चैन नहीं चित लायो
बेचैनी में नींद न आवे
पलकन रैन गँवायो
प्रभु जी क्यों ना राह दिखायो
भजन
रे मन , मन की आँखें खोल
भ्रमर - भ्रमर मन भ्रम भरा
पुष्पन में तू डोल
गूँज - गूँज के क्यों तू गूँजे
धीरे - धीरे बोल।
समेट लेवेगी पँखुडियों में
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भजन
रे मन , मन की आँखें खोल
भ्रमर - भ्रमर मन भ्रम भरा
पुष्पन में तू डोल
गूँज - गूँज के क्यों तू गूँजे
धीरे - धीरे बोल।
समेट लेवेगी पँखुडियों में
भँवरा नयन तू खोल
जीना है तो इस जीवन में
मीठा - मीठा बोल
रे मन , मन की आँखें खोल
पराई निंदा ना करे
मत विषया में विष घोल
विषया को तू प्याग दे
काया बिकजा अनमोल
रे मन , मन की आँखें खोल
कोमल काया मन कलपना
क्यों करता कल्लोल
बकवास करना बंद कर
व्यंग्य वचन ना बोल।
रे मन , मन की आँखें खोल
सत्य ताराजू बाट ले के
न्याय को तू तोल
अन्याय डांडी मार के
झूठ मत तू बोल
एक दिन कलेजा चीर के
हो जावे हरि बोल
राम नाम सत्य है
सत्य वाणी बोल
रे मन, मन की आँखें खोल
सरस्वती वन्दना
कंठ - कंठ में मुखरित है तू
तू अग - जग की वाणी
पा तेरा वरदान बोल पाते
जगती के प्राणी
&n
सरस्वती वन्दना
कंठ - कंठ में मुखरित है तू
तू अग - जग की वाणी
पा तेरा वरदान बोल पाते
जगती के प्राणी
वीणा की झंकार तुम्हारी
जब जीवन में छाती
कोटि - कोटि प्राणों के अमृत
पिला स्वयं सरसाती
तू साँसों की साँस, बुद्धि
की तू जीवनमय क्षमता
तेरे आँचल की छाँह
बाँटती जन - जीवन को ममता
तू शरदल मुस्कान, प्रकृति
में व्याप्त अमर संगीत
तू पंछी का गान, अमर
प्राणों की मघुमय प्रीत
कवियों की आराध्या तू
ममता की मूर्त्त कहानी
तू विवके की गंगा, माँ,
तू है सचमुच कल्याणी
करो आज स्वीकार ’नन्द’ के
गीत - पुष्प, ना विकसित
अंतरतर की भक्ति - भावना
पद पर आज समर्पित
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते. •
||जय माता दी||•
सुख, शान्ति एवम समृध्दि की मंगलमयी कामनाओं के साथ आप एवं आप के परिवा
सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते. •
||जय माता दी||•
सुख, शान्ति एवम समृध्दि की मंगलमयी कामनाओं के साथ आप एवं आप के परिवार जनो को शारदीय नवरात्री की हार्दिक मंगल कामनायें ।
माँ अम्बे आपको सुख समृद्धि वैभव ख्याति प्रदान करे। जय माँ भवानी।।
•||नवरात्री||•
की
" हार्दिक " शुभकामनाएं !!